उत्तरप्रदेश में नगर निकाय चुनाव में सबकी अपेक्षा के अनुरूप नतीजे आए हैं. भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि उनकी पार्टी ने जिस गंभीरता से चुनाव प्रचार किया था यह उसका परिणाम है कि पार्टी को अधिकतर निकायों में जीत मिली है.
रतन मणि लाल
उत्तरप्रदेश में नगर निकाय चुनाव में सबकी अपेक्षा के अनुरूप नतीजे आए हैं. भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि उनकी पार्टी ने जिस गंभीरता से चुनाव प्रचार किया था यह उसका परिणाम है कि पार्टी को अधिकतर निकायों में जीत मिली है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का कहना है कि उन्हें इस बात की आशंका थी कि ईवीएम और मतदाता सूची की गड़बड़ियों की वजह से नतीजे ऐसे ही आएंगे, और वैसा ही हुआ. और बहुजन समाज पार्टी का कहना है कि यह उनकी अपेक्षा के अनुसार प्रदेश की राजनीति में उनकी पार्टी की वापसी की शुरुआत है.
प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस जीत का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी के विकास के विजन और अमित शाह की रणनीतिक कुशलता को दिया है, और प्रदेश अध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडे ने इस जीत के लिए मोदी व शाह के साथ प्रदेश की जनता और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को बधाई दी है. यानी, अपेक्षित दिशा में बधाई संदेश भी जा रहे हैं. सच तो यह है कि पिछले आठ महीनों से प्रदेश सरकार के काम से प्रदेश के लोगों में असंतोष बढ़ने लगा था और बड़ा सवाल यह उठने लगा था कि क्या योगी अपने मंत्रियों और प्रदेश के अधिकारियों पर नियंत्रण बनाए रखने और उनसे काम ले पाने में असमर्थ हो रहे हैं? शहरों और कस्बों से शिकायतें आने लगीं थीं कि सरकारी तंत्र लोगों की सुन नहीं रहा है, उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, और भ्रष्टाचार फिर सिर उठाने लगा है. लेकिन नगर निकाय चुनाव के नतीजों से यह साफ है कि जब लोगों की राजनीतिक पसंद की बात आती है, तो इन शिकायतों का कोई खास मतलब नहीं है.
प्रदेश के 16 नगर निगम, 198 नगरपालिका परिषद और 438 नगर पंचायतों में तीन चरणों में चुनाव हुए थे, और ये चुनाव योगी सरकार के लिए पहली बड़ी परीक्षा थी. और योगी ने भी इस परीक्षा को पास करने के लिए पूरा जोर लगा रखा था. ऐसा पहली बार देखा गया कि किसी मुख्यमंत्री ने स्थानीय निकाय चुनाव के लिए पूरे प्रदेश में धुंआधार प्रचार किया और दर्जनों सभाएं संबोधित कीं. अब भाजपा ने भी इस जीत का श्रेय योगी और उनके कामकाज को दिया है. लखनऊ में मेयर की सीट पहली बार महिलाओं के लिए आरक्षित की गई और यहां से भाजपा की संयुक्त भाटिया जीतीं. इस चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का खाता भी नहीं खुला, और अपने अपने गढ़ माने जाने वाले जिलों में भी इन दोनों पार्टियों का प्रदर्शन बहुत खराब रहा. फिरोजाबाद को नगर निगम का दर्जा सपा सरकार ने दिया था और यहां पहली बार नगर निगम चुनाव हुआ, लेकिन सपा को यहां निराशा मिली. अमेठी से कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने को प्रचार से दूर रखा था और योगी द्वारा इतना गहन प्रचार करने का मखौल भी उड़ाया था, लेकिन अब वे अपनी पार्टी के कमजोर प्रचार को दोष देने के बजाए ईवीएम और मतदाता सूची को दोष दे रहे हैं. इसी तरह, बसपा की ओर से मायावती ने भी प्रचार से दूरी बनाए रखी, और मतदान के दिन वे उत्तरप्रदेश में थी ही नहीं, लेकिन उनकी पार्टी ने इस नतीजों में दूसरे स्थान पर आने के लिए मायावती के नेतृत्त्व को पूरा श्रेय दिया है.
ऐसा कहा जाता है कि स्थानीय निकाय चुनाव में क्षेत्रीय या राष्ट्रीय मुद्दे मायने नहीं रखते, और लोग अधिकतर शहरों और नागरिक सुविधाओं के स्तर पर वोट देते हैं. उत्तरप्रदेश के अधिकतर शहरों की हालत किसी से छिपी नहीं है. गंदगी, अतिक्रमण, बेतरतीब घरों और दुकानों का निर्माण, पानी और नाली-नालों की बदहाली, हर शहर में लगभग एक जैसा है. इसके बावजूद पिछले कई सालों से शहरी निकायों में भाजपा ही जीतती आई है. इस बार भी नतीजे भाजपा के पक्ष में गए हैं. मतदाताओं ने नगरीय सुविधाओं, नोटबंदी, जीएसटी और राज्य सरकार के काम करने का तरीकों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. साफतौर पर भाजपा किसी ऐसे भरोसे का प्रतीक है को अधिकतर लोगों की सोच से जुड़ा है. कोई कहेगा यह ध्रुवीकरण है, और कोई कहेगा कि ‘भोली-भाली’ जनता एक बार फिर झूठे वादों के जाल में आ गई. लेकिन हमारे लोकतंत्र में चुनाव जीतना ही सामाजिक और राजनीतिक स्वीकार्यता का सबसे बड़ा प्रतीक है. फिलहाल इस प्रतीक पर तो भाजपा का ही रंग चढ़ा दिखाई देता है.
(लेखक रतन मणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार है)
साभार: जी न्यूज