गहराने लगी सियासत की जंग, सबके अपने-अपने रंग

 

श्याम किशोर चौबे

रांची। रांची, जमशेदपुर जैसे बड़े शहरों में गिरे वोट परसेंटेज और इसके ठीक उलट सीमाई क्षेत्र बहरागोड़ा, भवनाथपुर में बढ़ी वोटरों की ललक तथा अन्य इलाकों में वोटरों की पोलिंग बूथ तक खासी उपस्थिति से नेताओं, राजनेताओं और राजनीतिक दलों के होश उड़े हुए हैं। झारखंड विधानसभा के चुनाव के सिलसिले में गुरुवार को तीसरे चरण की वोटिंग से 50 विधायकों की किस्मत तय हो गई। इन तीन चरणों में राज्य का भाग्य विधाता बनने की उम्मीद में जो 758 महानुभाव मैदान में डटे रहे, उनका भाग्य अमीरों और सुविधासंपन्न लोगों से अधिक असुविधा में जी रहे गरीबों ने तय कर दिया। अगले 11 दिनों तक उनमें कश्मकश बनी रहेगी। इनसे कहीं ज्यादा कश्मकश शेष दो चरणों के प्रत्याशियों मंे रहेगी। आरंभिक दो चरणों के वोटिंग ट्रेंड ने नेशनल पार्टियों के होश उड़ा दिए। यही कारण है कि तीसरे चरण के दौरान दिल्ली-झारखंड, लखनऊ-झारखंड और भोपाल-झारखंड की खूब उड़ानें भरी गईं। झारखंडी स्टार प्रचारकों के बजाय सुपर स्टारों पर भरोसा बढ़ गया। झारखंड के लोगों के लिए झारखंड के नेताओं के द्वारा झारखंड में उम्मीदों की फसलें उगाने के बजाय पूर्ववत एक तरह से सारा कुछ दिल्ली के हवाले कर दिया गया। सत्ताधारी भाजपा नेताओं ने आदतन कश्मीर, राम मंदिर और अब सीएबी राग पर अधिक भरोसा किया (झारखंड पर भी कम नहीं बोले), जबकि हरियाणा और महाराष्ट्र के नुस्खे को आजमाते हुए कांग्रेस नेताओं ने अधिकाधिक झारखंडी राग अलापा। उन्होंने जो कुछ भी कहा हो लेकिन यह राजनेताओं की पराश्रितता ही दर्शाती है।

तीन चरणों की वोटिंग और इस दौरान राजनीतिक दलों की कसरत बता रही है कि अगले दो चरणों में शेष 31 सीटों के लिए सियासी जंग गहराएगी। इसको प्रतिष्ठा और विरासत बचाने की होड़ के बजाय अपनी-अपनी सियासत जमाने की होड़
कह सकते हैं। यह पहला अवसर है, जब जिन प्रदेश स्तरीय दलों के समक्ष नेताओं का संकट था, वे भी चुनाव आते-आते बड़े नामदारों से सज-धज गए और अपनी अलग सियासत चलने लगे। इसलिए कोई भी पार्टी उनको नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं है। यही वह अवसर है, जब घोर वामपंथी समझे जाने वाले कतिपय नेता घोर दक्षिणपंथ की छाया में चले गए, वैसे ही घोर दक्षिणपंथी खेमे से उठकर कतिपय नेता समाजवादी चरित्र के दलों में शामिल हुए। यह
राजनीतिक घरौंदों के उलट-फेर का अद्भुत वक्त है, जो वोट की दशा-दिशा बदलने का संकेत देता है। इसी बात को समझते हुए चुनाव प्रचार में दिग्गजों को झोंका जा रहा है। हर ओर से मानो एक ही आवाज आ रही है, ‘शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा …’।

यही वह संक्रमणशील अवसर है, जब वोटर को अपना अस्तित्व समझना होगा और जिस प्रकार कुछ विशेष अवसरों पर सियासी पार्टियां निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से दलीय चिंता से ऊपर उठकर वोट करने की अपील करते हैं, वैसे ही वोटरों को नीर-क्षीर विवेक से सर्वोत्तम प्रत्याशी को चुनना होगा। ऐसा करने से बहुत संभव है कि झारखंड की तकदीर और तस्वीर में सकारात्मक और गुणात्मक परिवर्तन आए। झारखंड अबतक राजनीतिक प्रयोगों की भूमि रहा है, उसको अपना अस्तित्व तो पहचानना ही होगा। इससे बेहतर अवसर कब आएगा?

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