तकनीक के सहारे विकलांगों को बनाएं सबल

विश्व विकलांगता दिवस 3 दिसंबर पर विशेष लेख

मुझे घोर आश्चर्य होता है कि ज्यादातर लोग ये भी नहीं जानते कि उनके घर के आस-पास समाज में कितने लोग विकलांग हैं। समाज में उन्हें बराबर का अधिकार मिल रहा है कि नहीं। अच्छी सेहत और सम्मान पाने के लिये तथा जीवन में आगे बढ़ने के लिये उन्हें सामान्य लोगों से कुछ सहायता की जरुरत है, । लेकिन, आमतौर पर समाज में लोग उनकी सभी जरुरतों को नहीं जानते हैं। आँकड़ों के अनुसार, ऐसा पाया गया है कि, लगभग पूरी दुनिया के 15% लोग विकलांग हैं।

सुमन महतो, पूर्व सांसद, जमशेदपुर, झारखंड

आज हम 21वीं सदी में जीवनयापन कर रहे हैं। 21वीं सदी यानी विज्ञान की सदी। आधुनिकता की सदी। विचारों की सदी। अभिव्यक्ति की सदी। महिला सशक्तीकरण की सदी। जब तमाम क्षेत्र में हमें उम्मीद की किरण दिखाई पड रही है, तो विकलांग को हम कमजोर क्यों आंके ? यह सच है कि कोई जन्म से विकलांग है, लेकिन वह जीवनपर्यंत कमजोर रहे, यह नहीं होना चाहिए। कोई तन से अपंग हो सकता है, लेकिन मन से उसे सबल होना होगा। यदि वह किन्हीं कारणों से नहीं है, तो समाज के दूसरे व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि उसे सबलता प्रदान करें। जो लोग सामाजिक सरोकार से जुडे हैं, उनका यह दायित्व है। अपने संसदीय कार्यकाल में मैंने कई लाचार लोगों को समाज के मुख्यधारा में लाने की भरसक प्रयास किया।
विकलांगता ऐसा विषय है जिसके बारे में समाज और व्यक्ति कभी गंभीरता से नहीं सोचते। क्या हमने सोच होगा की कोई छात्र या छात्रा अपने पिता के कंधे पर बैठकर। भाई के साथ साईकिल पर बैठ कर या माँ की पीठ पर लटक कर या ज्यादा स्वाभिमानी हुआ तो खुद ट्राई साइकल चला कर ज्ञान लेने स्कूल जाता है किन्तु सीढ़ियों पर ही रुक जाता है क्यों की रैंप नहीं है। कैसे अपनी व्हील चेयर को सीढ़ियों पर चढ़ाये ?उसके मन में एक कसक उठती है क्या उसके लिए ज्ञान के दरवाजे बंद हैं क्या शिक्षण संस्था में उसके लिए कोई सुविधा नहीं मिल सकती ?शौचालय तो दूर उसके लिये एक रेम्प वाला शिक्षण कक्ष भी नहीं है जंहां स्वाभिमान के साथ वो अपनी व्हील चेयर चला कर ले जा सके एवं ज्ञान प्राप्त कर सके। आधुनिक तकनीकी आविष्कारों ने हमें एक नए समाज की परिकल्पना एवं उसको साकार करने के सबल साधन दिए हैं। अगर उनकी मदद से भी हम ऐसा समाज नहीं बना सकते जिसमें तथाकथित विकलांगों को अलग-अलग श्रेणियों में न रखना पड़े तो यही कहना पड़ेगा कि हमारी रुचि उसी सामान्य व्यक्ति में है जो वास्तविकता में कहीं होता नहीं। नेत्रहीनता या देखने की अन्य कमजोरियों वाले लोगों के लिए एक आम कंप्यूटर बहुत आसानी से वह सब काम कर सकता है जो हम एक-दूसरे के लिए करते हैं या जिनके लिए हम अलग-अलग तरह की पठन सामग्री का उपयोग करते हैं। इसके लिए दो बहुत ही सरल काम करने की आवश्यकता है। पहला तो यह है कि जो कुछ भी बोला या लिखा जाए वह डिजिटल फॉर्म में भी उपलब्ध हो। दूसरा यह है कि हर कंप्यूटर पर ‘जावा‘ जैसे कंप्यूटर प्रोग्राम उपलब्ध हों। इलेक्ट्रॉनिक ब्रेल प्रिन्टर से ठीक वही काम लिया जा सकता है जो हम लोग जिरॉक्स मशीन से लेते हैं। यदि हर जगह ये छोटी-छोटी चीजें उपलब्ध हों तो नेत्रहीन या नजरों से कमजोर बच्चों के लिए कोई अलग श्रेणी बनाने की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे कंप्यूटर अब आम हैं जो वह सब कुछ बोलते हैं जो उन पर छपा होता है। कंप्यूटर की मदद से किसी भी नेत्रहीन के लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं है कि वह किसी भी किताब का जो डिजिटलाइज हो चुकी है, कोई भी पन्ना जब चाहे पढ़ सकता है। ब्रेल किताबें भी अब बहुत आसानी से बनाई जा सकती हैं। उन बच्चों या व्यक्तियों के लिए जिन्हें सुनने या बोलने की कोई परेशानी है, कई तरह की तकनीकी चीजें सामने आ चुकी हैं। अभी तक साइन लैंग्वेज का उपयोग केवल खबरें सुनाने या चन्द भाषणों के अनुवाद के लिए ही होता है। यदि इसका उपयोग संप्रेषण के हर सन्दर्भ में होने लगे तो गूंगे-बहरों की अलग श्रेणी बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार यदि हम अपनी सड़कों, भवनों एवं शौचालयों को थोड़ी संवेदनशीलता से देखें तो कोई कारण नहीं कि शारीरिक रूप से विकलांग बच्चे या वयस्क स्वयं को किसी भी चीज से वंचित पाएँ।
भारतीय संसद ने विकलांगों के पुनर्वास एवं उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 विकलांगता अधिनियम पारित किया। स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों को प्रतिपादित करते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के ष्राइट्स ऑफ पर्सन्स विथ डिसबिलिटीज कन्वेंशन में कही गई बातों को 2007 में अंगीकार किया एवं विकलांग व्यक्तियों के लिए बने अधिनियम 1995 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित कन्वेंशनजिस पर 2008 में अमल शुरू हुआ के आधार पर बदलने की बात कही।
हर साल 3 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकलांग व्यक्तियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी और 1992 से संयुक्त राष्ट्र के द्वारा इसे अंतरराष्ट्रीय रीति-रिवीज के रुप में प्रचारित किया जा रहा है। विकलांगों के प्रति सामाजिक कलंक को मिटाने और उनके जीवन के तौर-तरीकों को और बेहतर बनाने के लिये उनके वास्तविक जीवन में बहुत सारी सहायता को लागू करने के द्वारा तथा उनको बढ़ावा देने के लिये साथ ही विकलांग लोगों के बारे में जागरुकता को बढ़ावा देने के लिये इसे सालाना मनाने के लिये इस दिन को खास महत्व दिया जाता है। 1992 से, इसे पूरी दुनिया में ढ़ेर सारी सफलता के साथ इस वर्ष तक हर साल से लगातार मनाया जा रहा है। समाज में उनके आत्मसम्मान, सेहत और अधिकारों को सुधारने के लिये और उनकी सहायता के लिये एक साथ होने के साथ ही लोगों की विकलांगता के मुद्दे की ओर पूरे विश्वभर की समझ को सुधारने के लिये इस दिन के उत्सव का उद्देश्य बहुत बड़ा है। जीवन के हरेक पहलू में समाज में सभी विकलांग लोगों को शामिल करने के लिये भी इसे देखा जाता है जैसे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक। इसी वजह से इसे “विश्व विकलांग दिवस” के शीर्षक के द्वारा मनाया जाता है। विश्व विकलांग दिवस का उत्सव हर साल पूरे विश्वभर में विकलांग लोगों के अलग-अलग मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करता है।
मुझे घोर आश्चर्य होता है कि ज्यादातर लोग ये भी नहीं जानते कि उनके घर के आस-पास समाज में कितने लोग विकलांग हैं। समाज में उन्हें बराबर का अधिकार मिल रहा है कि नहीं। अच्छी सेहत और सम्मान पाने के लिये तथा जीवन में आगे बढ़ने के लिये उन्हें सामान्य लोगों से कुछ सहायता की जरुरत है, । लेकिन, आमतौर पर समाज में लोग उनकी सभी जरुरतों को नहीं जानते हैं। आँकड़ों के अनुसार, ऐसा पाया गया है कि, लगभग पूरी दुनिया के 15% लोग विकलांग हैं। इसलिये, विकलांगजनों की वास्तविक स्थिति के बारे में लोगों को जागरुक करने के लिये इस उत्सव को मनाना बहुत आवश्यक है। विकलांगजन “विश्व की सबसे बड़ी अल्पसंख्यकों” के तहत आते हैं और उनके लिये उचित संसाधनों और अधिकारों की कमी के कारण जीवन के सभी पहलुओं में ढ़ेर सारी बाधाओं का सामना करते हैं।
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 58 चक्र के अनुसार देश में लगभग 1 करोड़ 85 लाख विकलांग हैं ,जबकि रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया की और से जारी रिपोर्ट में देश में विकलांगों की संख्या 2 करोड़ 68 लाख है। 75 प्रतिशत विकलांग ग्रामीण क्षेत्रों में हैं ,49 प्रतिशत विकलांग साक्षर हैं एवं 34 प्रतिशत विकलांग रोजगार प्राप्त हैं। सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के द्वारा कुछ वेवसाइट का सर्वेक्षण इस नजरिये से कराया गया की कितनी वेवसाइटों की पहुँच विकलांगो तक है इनमे से 95 प्रतिशत वेवसाइट विकलांगो की पहुँच से बाहर हैं जिनमे चुनाव आयोग की वेबसाइट भी शामिल है। ये आंकड़े दर्शाते है की स्थिति कितनी भयावह है। समाज एवं तंत्र विकलांगों के प्रति कितना असंवेदनशील है। शिक्षा एवं रोजगार ही विकलांगता से लड़ने के मुख्य अस्त्र हैं किन्तु इन दोनों की स्थिति इतनी दयनीय है की विकलांग व्यक्ति का आत्मबल दम तोड़ देता है। फिलहाल करीब 40 कंपनियाँ विकलांगों को नौकरियां दे रही हैं गैर सरकारी संस्थानों की यह पहल निश्चित रूप से विकलांगों के जीवन में नए रंग भर सकती है। आज आवश्यकता है विकलांगों को सामान अधिकार देने की व सम्मानपूर्वक पूर्वक व्यवहार करने की एवं उन्हें जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की ताकि वो देश निर्माण में अपना योगदान दे सकें।

(लेखिका सामाजिक कार्यों से सतत जुडी हुई है और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की नेता हैं।)

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