क्यों और कैसे कहूं कि मेरा कोई घर नहीं
मायका का वह घर आज
भी तो
रह तकता है मेरा अनवरत।
बाल्यकाल से यौवन तक कई
नादानियां औ अठखेलियां की हैं मैंने
साक्षी है आज भी वहाँ की मिट्टी
मेरे घर से बाहर जाने से आने तक
पिता और भाई की पेशानी पर
उभरी गहन चिंता की उन लकीरों की
पिया संग दहलीज पार कराते हुए
व्यथित विचलित स्नेह का वो दर-ओ-दीवार
आज भी उतना ही अपना है मेरा।
फिर
क्यों और कैसे कहूं
कि
मेरा कोई घर नहीं है।
आरती की थाली सुहाग की लाली संग
अपने इस घर में कदम रखा था मैंने।
नवीन और पुरातनता के संग्रह से
सजा संवरा मेरा नवीन आशियाना
शनैः शनैः मिल गई यहाँ भी संपूर्णता।
घर का हरेक कोना अहसास कराता है
मेरे अपने समग्रता के अस्तित्व का ।
सुबह से शाम तक स्व को विस्मृत कर
दिया है पति और स्वजनों ने मुझे
भावना से ओतप्रोत स्वामिनी होने का
अप्रतिम सुखद पूर्ण अधिकार।
फिर
क्यों और कैसे कहूं
कि
मेरा कोई घर नहीं है।
मैं तो आह्लादित और आत्मानंदित हूँ
अवतरित हुई नारीत्व के स्वरूप में।
तभी तो चहुं ओर आच्छादित हूँ
पौराणिक से आधुनिक हर युग में
कभी पूजनीय हूँ और कभी श्रृंगारित
कभी आत्म अभिमानी हूँ कभी पराश्रित।
दो घरों की संपूर्ण आत्मा में बसी हूँ मैं।
फिर
क्यों और कैसे कहूं
कि
मेरा कोई घर नहीं है।
– अंजना झा,
फरीदाबाद, हरियाणा।