– संजीव राय
इतिहास से विलुप्त
पुराण से निर्वासित
हम लौट रहे हैं इन्द्रप्रस्थ से
हमने अपने नाखून से खोदे जलाशय
बैल का जुआठ गले में बांध कर,
अरावली में चलाया हल,
अपनी पीठ को बनाकर हेंगा,
विंध्य में उपजाया अन्न
हम बनाते रहे सेना के लिए रथ,
राजा के लिए सुरंग ,
मंत्री के लिए चलाते रहे चवँर
मैसूर से चरखारी तक,किले बनाए
हमने गुंबद, मेहराब , गगनचुंबी इमारतें तामीर कीं
न जाने कितनी इमारतों में दबे हुए हैं
हमारे उखड़े हुए नाखून
हमारी आंखें इतनी थकी रहीं,
कभी देख नहीं पाए अपने लिए कोई सपना
हम जागते रहे दिन-रात
रानियों की कब्रों को,
इतिहास में जगह दिलाने के लिए
जिस जगह रखा है राजा का जूता , बन्दूक
थूकदान और मरे हिरण की खाल
क्या वहां दिखी हमारे बच्चे की करधनी
कहीं मिली मेहरी की बिछिया,
जहां रखी गई हैं रानी की डोली
क्या वहां किसी कोने में दिखी
कहारों की लाठी, उनका गमछा
हमारी कोई शौर्य गाथा नहीं है
जब्त हो चुके हैं हमारे फावड़े, हथौड़ी ,हंसिया, दरांती
खंभे के एक सिरे पर हाथ
दूसरे पर बांधकर अपना पैर
हमने बना लिया है सेतु
अपनी ही देह पर चढ़कर
हम पार कर रहे हैं गंगा सागर!
– डाॅ संजीव राय