अगर पीएम ‘प्रवासी’ नहीं तो कामगार क्यों?

निशिकांत ठाकुर

‘प्रवासी’ शब्द आखिर है क्या? इसका क्या अर्थ है? यह समझना इसलिए बहुत जरूरी हो गया है, क्योंकि आज यह शब्द कुछ ज्यादा ही प्रचलन में आ गया है। खासकर, कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी के बाद उत्तर भारत में कामगारों के अपने कार्यस्थलों से पलायन या विमुखीकरण के कारण ‘प्रवासी’ शब्द का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। आम बोलचाल से लेकर प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या फिर डिजिटल मीडिया… हर जगह इस शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। तो आइए, इस शब्द का शब्दकोश में मायने तलाशें। शब्दकोश में ‘प्रवासी’, इसका अर्थ ’विदेश में रहने वाला’ और ‘प्रवास’, यानी विदेश में वास, परदेश में रहना, परदेश है। इसलिए अपने देश में रहने वाले और दूसरे राज्यों से काम-धंधे की तलाश में आने वाले लोग ‘प्रवासी’ कैसे हो सकते हैं। क्या छत्तीसगढ़ अलग देश है और इसलिए वहां के कामगार को छत्तीसगढ़ी प्रवासी कहेंगे? बिहार क्या क्या कोई अलग देश है जहां के कामगारों को प्रवासी बिहारी मजदूर कहेंगे? क्या उत्तर प्रदेश एक अलग देश है जहां के कामगारों को उत्तर प्रदेश का प्रवासी कामगार कहेंगे? अगर ऐसा ही है तो देश के संसद में मौजूद सभी सांसद भी प्रवासी कहलाएंगे, क्योंकि वे देश के कोने-कोने का संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी उत्तर प्रदेश के प्रवासी सांसद और देश के लिए प्रवासी प्रधानमंत्री कहलाना पसंद करेंगे?
देश में हमारे संविधान ने यह अधिकार दिया है कि कोई भी भारतीय नागरिक आजाद भारत के एक कोने से दूसरे कोने में या विश्व के किसी भी राज्य में अपनी योग्यता और नियम के अनुसार रोज़गार प्राप्त कर सकता है। कुछ राज्य सरकारें तो ऐसी हैं कि अपने यहां के पढ़े-लिखे और गैर पढ़े-लिखे कामगार के लिए रोज़ी-रोटी की व्यवस्था अपने यहां करने के बजाय दूसरे राज्यों में उन्हें भेजकर अपमानित और प्रवासी कहला कर अपना जीवन-यापन करने के लिए विवश कर देते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल ऐसे ही प्रदेश हैं, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान पूरे देश से इन्हीं प्रदेशों के कामगार वापस लौटे हैं। शायद ही सुनने को मिला हो कि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल से कामगार अपने मूल राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब आदि लौटे हों।
दरअसल, भारत अब अखंड भारत नहीं रहा। वह खंड-खंड में राज्यवार विखंडित हो चुका है, क्योंकि अब हर राज्य अपने आप में स्वतःस्फूर्त एक अलग ‘देश’ बन चुका है। इस बात को स्वयं प्रधानमंत्री अपने मन की बात में भी स्वीकार कर चुके हैं कि वह ‘प्रवासी’ श्रमिकों की पीड़ा को शब्दों में बयां नहीं कर सकते। प्रवासी तो विदेशी ही हुए और जब विदेशी कामगार नाराज और दुखी होकर जान पर खेलकर वापस स्व‘देश’ चले जाएंगे, तब फिर तथाकथित जिस अखंड भारत की बात अब तक होती रही है, जिस अखंड भारत को पटरी पर लाने के लिए असंख्य देशभक्तों (विशेष श्रेणी वाले नहीं) ने अपनी जान दी, जिसकी अखंडता की रक्षा के लिए राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, पं. जवाहर लाल नेहरू, बाबू राजेंद्र प्रसाद, बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर सहित हजारों नेताओं ने जेल में रहना पसंद किया, अंग्रेजों के डंडे सहे, उन्होंने तो कभी किसी अपने देशवासियों के लिए प्रवासी शब्द का प्रयोग नहीं किया। क्या अब आजादी के इतने वर्षों बाद नए नेतागण राज्यवार देश बनाकर भारत की अखंडता को तार-तार कर देंगे? हमारे प्रधानमंत्री दुखी हैं कि समाज के जिस हिस्से में ग्रोथ इंजन बनाने की शक्ति है, जिस श्रमिक के बाहुबल से देश को बुलंदियों पर ले जाने की क्षमता है, उसका विकास आवश्यक है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री का इशारा बिहार की तरफ ही है, क्योंकि आज उसी राज्य के मधेपुरा में भारत का सबसे मजबूत इंजन बनना शुरू हो गया है और वहीं का श्रमिक अपने जान पर खेलकर उस विकास में भागीदार होना चाह रहा है। लेकिन, यदि आर्थिक और भौगोलिक रूप से देखा जाए तो वह क्षेत्र आज देश का सर्वाधिक पिछड़ा और उपेक्षित है। वहीं के लोग आज भूख, बेरोजगारी और कैंसर जैसी महामारी से जूझ कर प्राण त्यागने को मजबूर हैं।
दरअसल, इस ‘प्रवासी’ शब्द का प्रयोग पहले बहुत कम हुआ करता था। इसका प्रयोग तभी होता था, जब किसी झील के किनारे हम विदेशी पक्षियों को देखते थे। लेकिन, श्रमिकों का एक राज्य से दूसरे राज्य में जब से काम-धंधे के सिलसिले में आना-जाना शुरू हुआ तो फिर कुछ गैर हिंदीभाषी राज्यो के स्थानीय समाचार पत्रों ने ‘प्रवासी मजदूर’ जैसे शब्द को लिखना शुरू किया। धीरे-धीरे यह शब्द प्रचलन में आने लगा और जबसे कोविड-19 के दौरान लगे लॉकडाउन के बाद उन मजदूरों का पलायन शुरु हुआ तो यह शब्द आम बोलचाल का हिस्सा बन गया। कुछ समय पहले तक तो कुछ राज्यां तथा कुछ गैर हिंदीभाषी राज्यां की लिखने और बोलने वाला शब्द था, लेकिन अब इसे हिंदी के सभी अखबार, टीवी चैनल, नेता-अभिनेता तक बोलने लगे हैं। वैसे, गैर हिंदीभाषी राज्य के होते हुए भी हमारे प्रधानमंत्री की कई भाषाओं पर जबरदस्त पकड़ पर है, लेकिन ऐसा लगता है, प्रचलित इस गलत शब्द को उनके समक्ष इसके अर्थ की व्याख्या नहीं की गई होगी, इसलिए उनके द्वारा भी इसी शब्द का प्रयोग किया गया। अब देखना यह होगा कि कामगारों को किस तरह समझाया जाए कि केंद्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारों द्वारा उनकी मदद की बात सोची जा रही है और उनके हित का ख्याल रखना सरकार की जिम्मेदारी है। यह भी सच है कि निश्चित रूप से हमारे इस उद्गार को वह कामगार न पढ़ेंगे न सुनेंगे, लेकिन जिन नेताओं और राजनेताओं के कारण आज देश की यह दुर्गति हुई है या होगी, उनकी नजर में तो आएगी। इसके बावजूद यदि इन मेहनतकश कामगारों का भला नहीं होगा तो फिर यह देश चलेगा कैसे! आज शहर के शहर खाली हैं। कामगारों ने भूख, अपमान, जलालत के कारण बाल-बच्चों सहित हजारों मील की पैदल यात्रा करके अपने गांव पहुंच गए हैं, वह आएंगे किस हाल में। हालांकि यह भी कटु सच है कि वे अपने गाव में भी सुखपूर्वक रह नहीं पा रहे होंगे, क्योंकि यदि उन्हें जीवन-यापन की सारी सुविधाएं मिल गई होतीं तो फिर वह शहर में अपमानजनक जिंदगी जी कर रोजगार क्यों तलाशते और अब अपमानित होकर जान गंवाने वापस क्यों आते! यह स्थिति दुखद भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी। यह लंबी लड़ाई है और जब तक हम सब मिलकर कंधे से कंधा नहीं मिलकर चलेंगे, इस वैश्विक महामारी को कैसे जीत पाएंगे। इसलिए संकट की इस घड़ी में सबसे, चाहे लेखक, पत्रकार या साहित्यकार, आलोचक या सरकार से अपील ही कर सकता हूं, निवेदन ही कर सकता हूं कि इन बेजुबान कामगारों को ‘प्रवासी’ कहना और अपमानित करना बंद कीजिए और यह देश आगे कैसे बढ़ेगा, इस दिशा में सोचना शुरू का दीजिए।

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक हैं। )

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