21वीं सदी में और भी प्रासंगिक हैं महामना 

 
मालवीय जी के जीवन का प्रत्येक पल देशहित के चिंतन एवं कार्यों में व्यतीत हुआ था। उन्नति का कोई भी ऐसा विषय या क्षेत्र नहीं, जिसमें उन्होंने अग्रणी भूमिका न निभाई हो। मालवीय जी हमारी सभ्यता-संस्कृति के सामासिक विग्रह एवं एक प्रबल प्रकाश स्तम्भ थे। उन्होंने सदियों के शोषण, अत्याचार एवं विध्वंस से दबी-कुचली भारतीय आत्मा को प्राचीन ऋषियों के सनातन एवं शाश्वत संदेशों से पुनः जागृत करने और नव-निर्माण की नूतन उम्मीदों के संचार द्वारा उनमें साहस, शौर्य, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन की भावना भरने का प्रयास किया।
 धनंजय गिरि 
 
हमें गर्व है कि हम महामना मदन मोहन मालवीय के कीर्तिकलश काशी हिंदू विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं, जिसका शताब्दी वर्ष हो चुका है। शताब्दी वर्ष समारोह हमेशा से गौरवानुभूति देता है। चाहे वह वैयक्तिक स्तर पर हो या सांस्थानिक स्तर पर। सौ वर्षों में इस विश्वविद्यालय ने अखिल विश्व में अपना परचम लहराया। कई प्रतिमान स्थापित किए। महामना ने जिसका बीज रोपा था, आज वह वृक्ष लहलहा रहा है। पुनर्जागरण काल में शिक्षा में होने वाले बदलाव में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का विशेष योगदान रहा है। उन्होंने शिक्षा में प्राचीन भारतीय मूल्यों एवं मानदंडों के साथ आधुनिक ज्ञान व विज्ञान का बेहतरीन समन्वय किया। महामना के शिक्षा दर्शन का अनुसरण कर देश की शिक्षा को नई दिशा दी जा सकती है। महामना पूरे जीवन शिक्षक थे। उन्होंने शिक्षा में भारतीय संस्कृति और हिंदू विचारों को समाहित किया। महात्मा पंडित मदन मोहन मालवीय हिन्दुत्व की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। वे उन तेजस्वी महापुरुषों में से थे, जिन्होंने हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की सेना के लिए ही जन्म लिया था और अपने जीवन के अंतिम समय तक इस महान पुनीत लक्ष्य को पूरा करने हेतु समर्पित भावना से लगे रहे। 
मालवीय जी के जीवन का प्रत्येक पल देशहित के चिंतन एवं कार्यों में व्यतीत हुआ था। उन्नति का कोई भी ऐसा विषय या क्षेत्र नहीं, जिसमें उन्होंने अग्रणी भूमिका न निभाई हो। मालवीय जी हमारी सभ्यता-संस्कृति के सामासिक विग्रह एवं एक प्रबल प्रकाश स्तम्भ थे। उन्होंने सदियों के शोषण, अत्याचार एवं विध्वंस से दबी-कुचली भारतीय आत्मा को प्राचीन ऋषियों के सनातन एवं शाश्वत संदेशों से पुनः जागृत करने और नव-निर्माण की नूतन उम्मीदों के संचार द्वारा उनमें साहस, शौर्य, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन की भावना भरने का प्रयास किया। महामना भारत की नेतृत्व प्रतिभा को भली-भांति पहचानते थे एक सुनहरे भविष्य की रूप-रेखा उनकी कल्पना में उभर चुकी थी जिसे साकार करने के लिए समाज के सर्वाधिक क्रियाशील अंग के सहयोग की आवश्कता थी। उन्होंने अनुभव किया कि आदर्श चरित्रों क अधिकारी युवक-युवतियां ही भविष्य का सामना कर सकते हैं, परन्तु उन्हें ऐसी शिक्षा के माध्यम से तैयार करना होगा जो आधुनिक होने के साथ-साथ धर्म और नीति पर भी पर्याप्त बल दे। स्वराष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव की वृध्दि के लिए और मानवता को आध्यात्मिक गंगा में नहलाने के लिए ही उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। महामना महापुरुष और श्रेष्ठ आत्मा थे। उन्होंने समर्पित जीवन व्यतीत किया तथा धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि बहुत से क्षेत्रों में उत्कृष्ट सेवाएं की।
यह विश्वविद्यालय प्राचीन व आधुनिक भारतीय शिक्षा पद्धति का अनूठा संगम है।शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण देश में प्रचलित आधुनिक विषयों की शिक्षा के साथ,लुप्त तथा महत्वहीन हो रही ज्योतिष,योग,धर्मशास्त्र और आयुर्वेद जैसी विधाओं की शिक्षाएँ यहां प्रमुखता से दी जाती हैं।आज इसे एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय की ख्याति प्राप्त है।1360 एकड़ के विशाल और हरे-भरे तथा स्वच्छ परिसर में स्थापित काशी हिंदू विवि के अलावा 2740 एकड़ में दक्षिणी परिसर,शहर में स्थित 28 एकड़ में विद्यालय संकुल और शिक्षा संकाय हैं।सर्वविद्या की इस राजधानी में लगभग 32000 छात्र अध्ययनरत हैं,जबकि शोध करने वाले छात्रों की संख्या चार हजार है।यहां सिर्फ भारत ही नहीं,बल्कि विश्व के करीब 58 देशों के सैकड़ों छात्र विद्याध्ययन कर रहे हैं।विश्वविद्यालय की शुरुआत एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रुप में की गई और देश-दुनिया से चुन-चुन कर विद्वानों को आमंत्रित किया गया।महामना मालवीय भी यहां के कुलपति रहे थे।विश्वविद्यालय ने अपनी सौ वर्षों की यात्रा में देश को ऐसे-ऐसे रत्न दिए,जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में उच्चतम सफलता हासिल करते हुए देश का गौरव बढ़ाया है।यहां शिक्षा प्राप्त पूर्व छात्रों ने अपने उत्कृष्ट कार्यों के लिए देश के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान सहित सर्वोच्च पदों पर आसीन होने का गौरव प्राप्त किया है।बीएचयू से जुड़े 7 लोगों को अबतक भारत रत्न,जबकि 20 से अधिक व्यक्तियों को पद्म सम्मान से विभूषित किया जा चुका है।दादा साहेब फाल्के सम्मान पाने वाले भूपेन हजारिका तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गये काशीनाथ सिंह भी बीएचयू से जुड़े रहे थे।ऐसी उपलब्धि अपने आप में गौरव की बात है।बीएचयू ने शिक्षा के स्तर को अंतर्राष्ट्रीय मानक देते हुए विदेश के विश्वविद्यालयों से अब तक 54 समझौते किए हैं।
महामना के आदर्शों पर करोडों लोग चल रहे हैं। महामना मालवीय मिशन के समर्पित लोग अपने ध्येय के साथ आगे बढ रहे हैं। आगे भी यह विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में देश का प्रतिनिधित्व करता रहेगा। भारत का नाम पूरे विश्व में करता रहेगा। भले ही कुछ अराजक तत्व जब देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में माहौल को खराब कर देश की एकता और अखंडता को तोड़ने को आमदा नजर आ रहे हैं, तब ऐसे समय में महामना का कीर्तिकलश काशी हिंदू विश्वविद्यालय शांत भाव से देश की परंपरा को बरकरार रखने के लिए प्रतिबद्ध है। शताब्दी वर्ष समारोह में शिरकत करने आए राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी जी ने कहा था कि 100 साल के समय में पंडित मालवीय की इस तपोस्थली ने बहुत कुछ हासिल किया। सबको इस संपदा को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ाने के विषय में भी सोचना चाहिए। इसके लिए शोध को बढ़ावा देने की बात दुहराते हुए उन्होंने कहा कि हमें यह भी सोचने की जरूरत है कि आजादी के बाद देश की किसी भी यूनिवर्सिटी या कॉलेज में पढ़ा कोई छात्र नोबेल पुरस्कार नहीं हासिल कर सका है। इस अनुपलब्धि पर विचार करने के साथ-साथ सरकार को शिक्षा और शोध के क्षेत्र में अधिक निवेश करना चाहिए। तक्षशिला और नालंदा यूनिवर्सिटी की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि यहां पढ़ने के लिए दुनिया के कई देशों से युवा आते थे, आज ऐसा क्यों नहीं है? इस बारे में शिक्षा जगत से जुड़े सभी लोगों को गंभीरता से सोचना होगा तब ही भारत महाशक्ति बनेगा।  वहीं, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा कि यहां से पढ़े लोग कभी सीना तानकर कहते थे कि वह बीएचयू का स्टूडेंट है। यहां से पढ़े लोग जहां गए, अपने काम से झंडा गाड़ दिया। एक संस्था की ताकत क्या होती है? यह बीएचयू ने दिखाया है। यह बहुत बड़ी बात है। 
धार्मिक मामलों में उनके विचार-शास्त्र की प्रमाणिकता तथा उदारवाद का मिश्रण थे। सनातन धर्म के मूलभूत सिध्दांतों की उनकी व्याख्या निश्चित ही बहुत उदार थी। वह मानवता की भावना से सर्वजनीन प्रेम से तथा मानवहित के प्रति निःस्वार्थ निष्ठा से ओत-प्रोत थी और उन्हें ही वे सनातन धर्म मूलभूत सिध्दांत मानते थे पर शास्त्रों के प्रति उनकी निष्ठा ने उन्हे बहुत सी सामाजिक समस्याओं पर उस तरह विचार करने नहीं दिया जिस तरह समाज सुधारक चाहते थे कि वे करें। फिर भी हिन्दु समाज परपरानिष्ठ वर्ग पर उनका प्रभाव कुल मिला कर स्वस्थ और प्रगतिशील था। उन्होंने अपने ढंग से हरिजनों के उत्थान तथा हिन्दू समाज के शेष भाग से उनके निकट सम्मिलन (इंटीग्रेशन) में बहुत योगदान किया। भारतीय संस्कृति को जिन महार्षियों ने अपने जीवन का सारा अस्तित्व सौंप कर उसे अक्षुण्य और सुबोध बनाया है, उनमें महात्मा मालवीय का नाम प्रथम पंक्ति में है। प्राचीन परंपराओं और नूतन मान्यताओं के संधि-स्थल से महामना ने आधुनिक भारतीय, संस्कृति और राष्ट्रीयता को जो संदेश दिया, उसे आने वाली पीढ़ी युग-युग तक स्मरण करेगी। स्वतंत्रता प्राप्त कर ‘अपने देश में अपना राज’ के संदेश से उस महापुरुष ने हमें जो प्रेरण दी, उससे भारत के नव-निर्माण की दिशा-दृष्टि मिलती है। मालवीय जी द्रष्टा थे, उनका सपना साकार हुआ, जिस भी क्षेत्र में उन्होंने स्वप्न देखा उसे पूरा किया। मालवीय जी जीवन भर सत्य, न्याय और परस्पर सौहार्द, पर दुःख आदि से प्रभावित रहे और इनके लिए जो सेना भी वह कर सकते थे, उन्होंने की। इन्ही विषमताओं की दैनिक लीडर के प्रधान संपादक श्री सी.वाई. चिंतामणि ने एक बार लिखा था कि महात्मा गांधी के मुकाबले में अगर कोई व्यक्ति खड़ा किया जा सकता है तो वह अकेले मालवीय जी महाराज हैं और बहुत से मामलों में वह उनसे भी बढ़ कर हैं। मालवीय जी के जीवन में जब तक सांस रही तब तक वे देश की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहे।
पं. मदन मोहन मालवीय जी कई संस्थाओं के संस्थापक तथा कई पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। इस रूप में वे हिन्दू आदर्शों, सनातन धर्म तथा संस्कारों के पालन द्वारा राष्ट्र-निर्माण की पहल की थी। इस दिशा में प्रयाग हिन्दू सभा की स्थापना कर समसामयिक समस्याओं के संबंध में विचार व्यक्त करते रहे। सन् 1884 ई. में वे हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सदस्य, सन् 1885 ई. में इण्डियन यूनियन का सम्पादन, सन् 1887 ई. में भारत-धर्म महामण्डल की स्थापना कर सनातन धर्म के प्रचार का कार्य किया। सन् 1889 ई. में हिन्दुस्तान का सम्पादन, 1891 ई. में इण्डियन ओपीनियन का सम्पादन कर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। मालवीय जी एक सफल पत्रकार थे और हिन्दी पत्रकारिता से ही उन्होंने जीवन के कर्मक्षेत्र में पदार्पण किया। वास्तव में मालवीय जी ने उस समय पत्रों को अपने हिन्दी-प्रचार का प्रमुख साधन बना लिया और हिन्दी भाषा के स्तर को ऊँचा किया था। धीरे-धीरे उनका क्षेत्र विस्तृत होने लगा। पत्र सम्पादन से धार्मिक संस्थाएँ और इनसे सार्वजनिक सभाएँ विशेषकर हिन्दी के समर्थनार्थ और यहाँ से राजनीति की ओर इस क्रम ने उनसे सम्पादन कार्य छुड़वा दिया और वे विभित्र संस्थाओं के सदस्य, संस्थापक अथवा संरक्षक के रूप में सामने आने लगे। पत्रकार के रूप में उनकी हिन्दी सेवा की यही सीमा है, यद्यपि लेखक की हैसियत से वे भाषा और साहित्य की उत्रति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। हिन्दी के विकास में उनके योगदान का तब दूसरा अध्याय आरम्भ हुआ। हिन्दी की सबसे बड़ी सेवा मालवीय जी ने यह की कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की अदालतों और दफ्तरों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पहले केवल उर्दू ही सरकारी दफ्तरों और अदालतों की भाषा थी। यह आन्दोलन उन्होंने सन् 1890 ई. में आरम्भ किया था। तर्क और आँकडों के आधार पर शासकों को उन्होंने जो आवेदन पत्र भेजा उसमें लिखा कि “पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध की प्रजा में शिक्षा का फैलना इस समय सबसे आवश्यक कार्य है और गुरुतर प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि इस कार्य में सफलता तभी प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी दफ्तरों में नागरी अक्षर जारी किये जायेंगे। अतएव अब इस शुभ कार्य में जरा-सा भी विलम्ब न होना चाहिए। सन् 1900 ई. में गवर्नर ने उनका आवेदन पत्र स्वीकार किया और इस प्रकार हिन्दी को सरकारी कामकाज में हिस्सा मिला। श्काशी हिन्दू विश्वविद्यालयश् के कुलपति की स्थिति में उपाधिवितरणोंत्सवों पर प्रायरू मालवीय जी हिन्दी में ही भाषण करते थे। शिक्षा के माध्यम के विषय में मालवीय जी के विचार बड़े स्पष्ट थे। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था कि भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाईयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।
 इसके साथ ही सन् 1891 ई. में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण व विशिष्ट मामलों में अपना लोहा मनवाया था। सन् 1913 ई. में वकालत छोड़ दी और राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया ताकि राष्ट्र को स्वाधीन देख सकें। यही नहीं, वे आरम्भ से ही विद्यार्थियों के जीवन-शैली को सुधारने की दिशा में उनके रहन-सहन हेतु छात्रावास का निर्माण कराया। सन् 1889 ई. में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया। इलाहाबाद में म्युनिस्पैलिटी के सदस्य रहकर सन् 1916 तक सहयोग किया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। सन् 1907 ई. में बसन्त पंचमी के शुभ अवसर पर एक साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका अभ्युदय नाम से आरम्भ की, साथ ही अंग्रेजी पत्र लीडर के साथ भी जुड़े रहे। पिता की मृत्यु के बाद पंडित जी देश-सेवा के कार्य को अधिक महत्व दिया। 1919 ई. में श्कुम्भ-मेलेश् के अवसर पर प्रयाग में प्रयाग सेवा समिति बनाई ताकि तीर्थयात्रियों की देखभाल हो सके। इसके बाद निरन्तर वे स्वार्थरहित कार्यो की ओर अग्रसर हुए तथा महाभारत, महाकाव्य के निम्नलिखित उदाहरण को अपना आदर्श जीवन बनाया –
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम् । 
कामये दुःख तप्तानाम् प्राणिनामार्तनाशनम् ।।
 (लेखक महामना मालवीय मिशन से जुडे हैं।) 

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