निशिकांत ठाकुर
नई दिल्ली। दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने भाजपा से निष्कासित उत्तर प्रदेश के उन्नाव से विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को नाबालिग लड़की से दुष्कर्म के आरोप सही साबित होने पर आजन्म कारावास तथा पच्चीस लाख़ जुर्माने की जो सजा सुनाई है, उसके लिए भारतीय न्याय व्यवस्था के सम्मान में जय-जयकार ही करने का मन होता है। काश, इस प्रकार के अपराधियों को शीघ्र इसी तरह आगे भी दंडित किया जाए तो अपराधियों में भय व्याप्त होगा और समाज में अपराध का जो ग्राफ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, वह निश्चित रूप से नीचे आएगा। समाज के सबसे घृणित अपराध ‘दुष्कर्म’ को अंजाम देने वाले को जल्द से जल्द और कठोरतम सजा मिले, इसके लिए समाज-प्रशासन तथा सीबीआई ने भी अपनी अहम भूमिका निभाई। लेकिन हां, पीड़िता का परिवार लगभग समाप्त हो गया। इसके बावजूद सब कुछ खोकर भी यदि वह दर्द आखिर कुछ कम तो हुआ ही होगा।
इसे कल्पना के रूप में नहीं, सत्य के जैसा स्वीकार कीजिए कि जिसके साथ दुष्कर्म हुआ, शिकायत करने पर पिता को पीट-पीट कर मार दिया गया हो, उस पीड़िता को भी जान से लगभग मार दिया गया हो, परिवार के लोगों को येन-केन-प्रकारेन मरवा दिया गया हो या फिर उत्पीड़ित किया गया हो- उसका मन कैसे शांत होगा और शेष जीवन वह कैसे जिएगी? उस बहादुर के जीवन की कल्पना कीजिए जिसे अभी भी उस सजायाफ्ता के सामने जीना है। लेकिन, यह अपराधी को दिया गया अंतिम सजा नहीं है। इसी प्रकरण से संबंधित कई और विवाद न्यायालय में निर्णय के लिए लंबित पड़े हैं। देखने की बात यह होगी कि किस मामले में और कितनी सजा उस अपराधी को अभी और मिलती है ।
पता नहीं दुष्कर्म के मामले अपने यहां इतनी क्यों बढ़ गई है। अभी उत्तर प्रदेश की कई घटनाओं का उल्लेख कैसे नहीं किया जाना चाहिए, जिनमें उन्नाव की वह घटना है, जिसमें दुष्कर्म पीड़िता को मिट्टी तेल डालकर जला डाला गया और अब मामले को तरह-तरह के रंग देकर दूसरी तरफ मोड़ने का प्रयास किया गया। जो भी रहा हो, लेकिन हृदय-विदारक इस दुष्कृत्य को कैसे बर्दाश्त किया जा रहा है। क्या यह मान लिया जाए कि आधी आबादी को दोयम दर्जे का जीवन जीना होगा? हम पीड़िता को ही अपराधी क्यों मान लेते हैं? जब किसी घटना की जांच होती है, तो पुलिस और वकील द्वारा उससे इस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं कि दुखी होकर पीड़िता जांच से ही पीछा छुड़ा लेती है। लोगों के समक्ष अपनी और बदनामी की बात सोचकर अपने साथ हुए दारुण अत्याचार से मुंह छुपा लेती है। लेकिन, इस प्रकरण ने साबित कर दिया कि न्याय का साथ यदि दिया जाए, तो उसके निर्णय हृदय को थोड़ा ठंडा जरूर कर देता है।
अभी उत्तर प्रदेश का ही एक और बड़ा मुद्दा उलझा हुआ है पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद का विवाद। वह भी वैसा ही मुद्दा है, जैसा कुलदीप सिंह सेंगर का था। सेंगर पर भी तथाकथित संबंधित सरकार का वरद्हस्त था, वही हाल स्वामी चिन्मयानंद का भी है। वह पूर्व भाजपा सरकार में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री रह चुके हैं, इसलिए प्रभाव तो निश्चित रूप से होना स्वाभाविक होता ही है। लेकिन, चूंकि यह मामला भी न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए अब इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन कितनी सिफारिश कर सकता है। अब न्याय की लड़ाई है और न्याय अपने देश में देर से ही सही, होता अवश्य है।
कुल मिलाकर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि देश में जिला स्तर पर महिलाओं के साथ हुए अत्याचार के लिए फास्ट ट्रैक जैसा न्यायालय बना दिया जाए, ताकि निर्णय शीघ्र हो और इसके कारण आमजन और महिलाओं के मन में जो डर मंडराता रहता है, वह खत्म हो सके। वैसे इस प्रकार की व्यवस्था राज्यो में है, लेकिन सभी जिलों अथवा कमिश्नरी स्तर पर इस प्रकार के न्यायालय का गठन किया जाना चाहिए, जिससे परेशान भुक्तभोगियों को भटकना नहीं पड़ेगा और वह जिस मानसिक संत्रास में अपना जीवन गुजार रही होती हैं, उससे छुटकारा शीघ्र पा सकेंगी। अब देखना यह है कि दुष्कर्म के आरोपियों को कुलदीप सिंह सेंगर की सजा के बाद कितना खौफ पैदा होता है। इसका सकारात्मक एवं दूरगामी परिणाम अवश्य आएगा और समाज के इस प्रकार की मानसिकता वालों में भय पैदा होगा और अपराध घटेगा। अतः न्यायिक व्यवस्था के इस कठोर निर्णय के प्रति जय-जयकार करने का मन होता है।