क्या मोदी की तरह लोकप्रियता हासिल करने में सफल हो पायेंगे राहुल ?

कृष्णमोहन झा

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के चुनावी अभियान की बागडौर कसकर अपने हांथों में थामे रहे। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहित भाजपा एवं केंद्र की एनडीए सरकार पर जमकर तीखे प्रहार किए। उनके इस प्रहारों का का जवाब पीएम मोदी ने अपने चिर -परिचित अंदाज में वाकपटुता के साथ सटीक दिया। राहुल गाँधी ने चुनाव अभियान के अंतिम चरण में यह कहकर पीएम नरेंद्र मोदी को एक और मुद्दा थमा दिया कि अगले साल लोकसभा चुनाव में अगर कांग्रेस पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में जीतकर आती है तो वे प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने को सहर्ष तैयार होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के एक साल पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए दी गई सहमति पर चुटकी लेने से भी नहीं चुके। उन्होंने बाल्टी और टैंकर का उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया कि यह उनका अहंकार ही है जो उन्होंने कांग्रेस के अनुभवी नेताओं और सहयोगी दलों को दरकिनार कर स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। पीएम मोदी ने आगे यह भी कहा कि देश में 40 -40 साल से राजनीति कर रहे नेता प्रधानमंत्री बनने का इंतजार करते है और अचानक एक व्यक्ति आकर यह कहता है कि वह प्रधानमंत्री बनेगा।
राहुल गांधी की टिप्पणी पर पीएम मोदी ने जो व्यंगबाण छोड़े वह स्वभाविक है, किन्तु वरिष्ठता के आधार पर प्रधानमंत्री पद के लिए किसी नेता को प्रोजेक्ट करने का प्रश्न है तो भाजपा ने वर्ष 2013 में नरेंद्र मोदी को भी भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी को दरकिनार कर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था जब वे भी उसी तरह मन मसोसकर रह गए थे जैसा की आज वे राहुल गांधी के बारे में कह रहे है। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पीएम मोदी की लोकप्रियता उस समय शिखर की ऊंचाइयों को छू रही थी। उनके पास एक मुख्यमंत्री के रूप में एक दशक से भी अधिक समय तक एक राज्य की बागडौर संभालने का अनुभव भी था। इसी आधार पर भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की और से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था। उन्होंने पार्टी के इस फैसले को सही भी साबित किया। उस समय शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी का जमकर विरोध किया,वही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनका विरोध करते हुए भाजपा से अपना 17 साल पुराना नाता तक तोड़ लिया था ,किन्तु आखिरकार उन लोगो को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का लोहा मानना ही पड़ा। लालकृष्ण आडवाणी जहां मन मसोसकर एक संरक्षक की भूमिका में आ गए है ,वही नितीश कुमार ने भी उनके आगे हार मान ली है ,लेकिन फिलहाल तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की लोकप्रियता एवं अनुभव का पैमाना तो इस तरह का दिख नहीं रहा है।
राहुल गांधी के साथ यह प्लस पॉइंट है कि वे कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष है। और यह भी सर्वविदित है कि जिस तरह उन्होंने अगले साल होने वाले Bलोकसभा चुनाव में स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, उसको लेकर कांग्रेस के अंदर उस तरह की किसी भी आपत्ति की कोई गुंजाइस नहीं है ,जिस तरह नरेंद्र मोदी के मामले में भाजपा में थी।राहुल गांधी को पार्टी में तो उन्हें दूर -दूर चुनौती मिलने की संभावना नहीं है, लेकिन उन्हें जनता के बीच सर्वमान्य बनने के लिए कर्नाटक मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी को सत्ता की दहलीज पहुंचाने का करिश्मा भी कर दिखाना होगा। राहुल गांधी यदि कर्नाटक में प्रधानमंत्री मोदी एवं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के धुंआधार प्रचार के बाद भी अपनी सत्ता बरक़रार रखने में सफल हो जाते है, तो निश्चित ही इसका पुरा श्रेय उन्हें ही मिलेगा। इससे कुछ हद तक मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान के विधानसभा चुनावों में लाभ मिलने की संभावनाएं बलवती हो जाएगी,बल्कि कांग्रेस इन चुनावों में भाजपा को दुगने उत्साह के साथ चुनौती देने की स्तिथि में होगी। राहुल गांधी 2019 में प्रधानमंत्री बनने का जो सपना देख रहे है, वह इन चारों राज्यों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर पर ही । यह प्रदर्शन पुरी तरह उनके प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की योग्यता के रूप में नापा जाएगा।
इसके साथ ही राहुल गांधी खुद भी इस सच्चाई से वाकिफ होंगे कि अन्य राजनीतिक दलों के साथ चुनावी तालमेल के बिना वे आगामी लोकसभा चुनावों में पार्टी को सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने में सफल नहीं हो सकते है। यह बात सही है कि सपा ,बसपा ,तृणमूल कांग्रेस आदि दलों की तुलना में कांग्रेस का जनधार कही अधिक राज्यों में फैला हुआ है,परन्तु क्या इन दलों के मुखियां राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने के लिए सहर्ष तैयार हो जाएंगे। इसका उत्तर अभी तो नहीं दिया जा सकता है। उत्तरप्रदेश के गत विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली समाजवादी पार्टी के मुखियां अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया है कि प्रधानमंत्री पद के लिए चयन का प्रश्न लोकसभा चुनाव के बाद ही उठाया जाएगा। तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के समर्थकों ने साफ कर दिया है कि वे अपनी मुखियां को ही इस पद पर देखना चाहेंगे। इसलिए राहुल गांधी को इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए कि वे सहयोगी दलों को भी सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकार होंगे। सबसे बड़ी बात है कि क्या कांग्रेस का दूसरे दलों सहयोगी दलों के साथ गठबंधन आगामी लोकसभा चुनावों में बहुमत के आंकड़े के कितने नजदीक पहुच पाएगा।। एक बात अवश्य है कि अगर राहुल गांधी खुद को भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे है तो उन्हें यह मलाल भी अवश्य होगा कि केंद्र में यूपीए शासनकाल में जब तात्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह प्रस्ताव दिया था कि वे राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने के लिए सदैव तैयार है तब वे प्रधानमंत्री बनने से परहेज करते रहे। आज जब प्रधानमंत्री पद पाना उनके लिए दूर की कौड़ी साबित हो रहा है तब उनके मन मे इसे पाने की लालसा जाग गई है। अभी तो उन्हें कांग्रेस को ऐसे सशक्त दल के रूप में खड़ा करने की चिंता करनी चाहिए जो भाजपा के साथ आगामी चुनावों में बराबरी का मुकाबला करने की स्तिथि में हो । यदि ऐसा करने में वे सफल नही होते है तो उन्हें व्यंग्य बाणों के लिए तैयार रहना होगा।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं)

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