ऋषि अगस्त्य भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वे केवल महान संत और तपस्वी ही नहीं, बल्कि भारतीय एकता के प्रतीक भी हैं। उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक सेतु के रूप में उनकी भूमिका आज भी आदरणीय है। उनके योगदान ने भारत की विविधता को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य किया।
ऋषि अगस्त्य भारत की एकता के प्रतीक हैं। उन्होंने भाषा, धर्म, संस्कृति, चिकित्सा, राजनीति और शिक्षा के माध्यम से उत्तर और दक्षिण भारत को जोड़ा। वे केवल एक संत नहीं थे, बल्कि भारत की आत्मा को जोड़ने वाले महान विचारक और मार्गदर्शक थे। उनकी शिक्षाएँ और योगदान आज भी प्रासंगिक हैं और भारत की सांस्कृतिक विरासत को सशक्त बनाते हैं।
ऋषि अगस्त्य को उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्र में जन्म लेने वाला माना जाता है। किंतु, उन्होंने दक्षिण भारत की यात्रा की और वहां ज्ञान, भाषा, चिकित्सा और अध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया। काशी में भगवान शिव ने उन्हें तमिल भाषा के व्याकरण को विकसित करने का निर्देश दिया, जिसके बाद वे तमिलनाडु गए और तमिल व्याकरण की रचना की। यह इस बात का प्रमाण है कि ऋषि अगस्त्य ने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंध स्थापित किए।
जनवरी,2025 में जब काशी तमिल संगमम के तीसरे संस्करण की घोषणा केंद्रीय शिक्षा मंत्री श्री धर्मेन्द्र प्रधान ने की, तो उन्होंने कहा था कि शिक्षाविदों का मानना है कि प्राचीन काल से भारत में शिक्षा और संस्कृति के ये दो महत्वपूर्ण केंद्र रहे हैं और दोनों के बीच अटूट सांस्कृतिक संबंध रहा है। इस संगमम का उद्देश्य इस बारे में युवाओं को जागरूक करना है, ताकि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों के बीच परस्पर संपर्क-संवाद बढ़े। आईआईटी मद्रास ने 15 से 24 फरवरी 2025 तक आयोजित होने वाले ‘काशी तमिल संगमम’ की पूरी तैयारी की है। यह भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय का अहम आयोजन है। वाराणसी में इस आयोजन की मेजबानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय करेगा। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक़, तमिलनाडु और काशी के बीच ये अटूट बंधन काशी तमिल संगमम 3.0 के माध्यम से जीवंत होने जा रहे हैं।
काशी तमिल संगमम 3.0 की मुख्य थीम ऋषि अगस्त्य के महत्वपूर्ण योगदान को उजागर करना है जो उन्होंने सिद्धा चिकित्सा पद्धति (भारतीय चिकित्सा), शास्त्रीय तमिल साहित्य और राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता में दिया है। इस अवसर पर एक विशिष्ट प्रदर्शनी ऋषि अगस्त्य के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के बारे में और स्वास्थ्य, दर्शन, विज्ञान, भाषा विज्ञान, साहित्य, राजनीतिक, संस्कृति, कला, विशेष रूप से तमिल और तमिलनाडु के लिए उनके योगदान पर आयोजित की जाएगी। इसके अलावा प्रासंगिक विषयों पर सेमिनार और कार्यशाला भी होंगी।
असल में, ऋषि अगस्त्य को तमिल भाषा के पहले वैयाकरण के रूप में जाना जाता है। यह माना जाता है कि भगवान मुरुगन ने उन्हें स्वयं तमिल व्याकरण की शिक्षा दी थी। उनकी रचनाओं ने तमिल भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाया। उन्होंने संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में ग्रंथों की रचना की, जिससे वे दोनों ही भाषायी परंपराओं के सेतु बने।
ऋषि अगस्त्य केवल भाषा और साहित्य तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में भी अतुलनीय योगदान दिया। वे सिद्ध चिकित्सा प्रणाली के जनक माने जाते हैं, जो तमिलनाडु की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली है। उनकी जयंती को हर वर्ष ‘राष्ट्रीय सिद्ध दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनकी यह विरासत आज भी तमिलनाडु और भारत के अन्य भागों में चिकित्सा पद्धति के रूप में जीवित है। ऋषि अगस्त्य को कावेरी और ताम्रपर्णी नदियों को पृथ्वी पर लाने का श्रेय दिया जाता है। इन नदियों ने दक्षिण भारत में कृषि और जल आपूर्ति को समृद्ध किया, जिससे वहां की सभ्यता फली-फूली। उनके इस योगदान ने भारतीय समाज के प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ऋषि अगस्त्य ने परशुराम के साथ मिलकर ‘कलरीपट्टू’ नामक भारत की प्राचीन मार्शल आर्ट की स्थापना की। यह युद्धकला दक्षिण भारत और केरल में आज भी प्रचलित है। यह दर्शाता है कि ऋषि अगस्त्य केवल आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, बल्कि शारीरिक प्रशिक्षण और रक्षा-कौशल के भी प्रेरणास्रोत थे।
ऋषि अगस्त्य कई तमिल राजाओं जैसे चोल, पांड्य आदि के कुलगुरु थे। उन्होंने प्रशासनिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन देकर भारतीय राजनीति और समाज को दिशा दी। इसके अलावा, वे ऋग्वेद के लगभग 300 मंत्रों के रचयिता माने जाते हैं, जो भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में उनका अमूल्य योगदान है। ऋषि अगस्त्य का उल्लेख कई धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। रामायण में, उन्होंने भगवान राम को लंका युद्ध से पहले ‘आदित्य हृदयम्’ स्तोत्र का उपदेश दिया, जिससे श्रीराम को युद्ध में विजय प्राप्त करने की शक्ति मिली। वे महाभारत और पुराणों में भी एक प्रमुख ऋषि के रूप में वर्णित हैं।
ऋषि अगस्त्य के नाम से भारत के कई राज्यों में मंदिर हैं। उत्तर भारत में काशी के अगस्त्य कुंड और अगस्त्येश्वर महादेव मंदिर प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा, उज्जैन, नासिक, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, असम, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि में भी उनके मंदिर स्थापित हैं। दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु और कावेरी क्षेत्र में उन्हें विशेष रूप से पूजा जाता है।
ऋषि अगस्त्य की ख्याति केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि श्रीलंका, इंडोनेशिया, जावा, कंबोडिया, वियतनाम सहित दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में भी उन्हें पूजा जाता है। यह उनकी शिक्षाओं और योगदान की वैश्विक स्वीकृति को दर्शाता है।
ऋषि अगस्त्य का जीवन और उनका योगदान हमें यह सिखाता है कि भारत की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। वे हमें यह प्रेरणा देते हैं कि विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं के बीच सेतु बनाकर ही हम एक सशक्त और समृद्ध भारत की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। उनकी स्मृति और शिक्षाएँ हमें सदैव एकता, ज्ञान और आत्मनिर्भरता की राह दिखाती रहेंगी।