अनंत अमित
भारतीय अध्यात्म की गहराइयों में यदि कोई सबसे अधिक प्रेरक विचार है, तो वह है – “ईश्वर अंश जीव अविनाशी।” गोस्वामी तुलसीदास द्वारा उद्घोषित यह पंक्ति मात्र एक धार्मिक कथन नहीं, बल्कि एक गहन दार्शनिक, सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण है, जो मानव जीवन की सार्थकता को नए सिरे से परिभाषित करती है। यह उद्घोष हमें स्मरण कराता है कि प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता की चिंगारी विद्यमान है, और उसका उद्देश्य केवल भौतिक सुखों तक सीमित न होकर आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर होना भी है।
आज के समय में, जब समाज अनेक प्रकार की विघटनकारी प्रवृत्तियों से जूझ रहा है – चाहे वह नैतिक मूल्यों का क्षरण हो, सामाजिक असंतुलन, या राजनीतिक स्वार्थवृत्तियाँ – ऐसे में इस मूल भावना की पुनर्स्थापना की नितांत आवश्यकता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति यह स्वीकार करे कि वह स्वयं ईश्वर का अंश है, तो उसका व्यवहार, दृष्टिकोण और कर्तव्य-बोध स्वतः ही मर्यादित, समर्पित और लोक-कल्याणकारी हो जाएगा।
भारतीय नववर्ष के प्रारंभ में चैत्र मास की शुक्ल नवमी तिथि पर प्रतिवर्ष रामनवमी का पर्व अत्यंत श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। यह पर्व हमारी सांस्कृतिक जीवनधारा में विशेष स्थान रखता है। अंतर्यामी परमात्मा का श्रीराम के रूप में लोक में अवतरण एक ऐसा अद्भुत क्षण होता है, जब हम उन्हें अपने आस-पास अनुभव करने की इच्छा से रामनवमी मनाते हैं। यह पर्व हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने का प्रेरक अवसर भी है।
जैसा कि विदित है, श्रीराम की जीवन-लीला किसी सरल रेखा की भांति नहीं, बल्कि उतार-चढ़ाव से भरी एक व्यापक यात्रा है। उनके जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ, पीड़ा, सुख-दुख, भय-साहस, प्रेम-घृणा जैसे सभी भाव हमें यही सिखाते हैं कि इन्हें अपनाकर आगे बढ़ना ही मानव धर्म है।
रामनवमी 06 अप्रैल,2025 विशेष
श्रीराम का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि युगांतकारी था — अधर्म का अंत कर धर्म की स्थापना करना। सृष्टि के विविध अंग जब सामंजस्य में रहते हैं, तभी जीवन संभव होता है। असंतुलन उत्पन्न होने पर विघ्न आते हैं, जिनका समाधान आवश्यक हो जाता है। श्रीराम इसी संतुलन की पुनःस्थापना के लिए अवतरित होते हैं। वे “रामो विग्रहवान् धर्म:” का मूर्त रूप हैं — अर्थात धर्म के साक्षात स्वरूप। इसीलिए हर वर्ग के लोग उनसे आत्मीय संबंध अनुभव करते हैं — चाहे अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अशिक्षित।
आज भी रामनवमी पर श्रीराम के पुनः अवतरण की प्रतीक्षा होती है — जैसे एक नई सुबह की आशा। श्रीराम केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि लोकजीवन के हिस्से हैं। उनके नाम का संकीर्तन आज भी लोगों की दिनचर्या का हिस्सा है। जीवन के हर संस्कार — जन्म से विवाह तक — श्रीराम के नाम के बिना अधूरा है। भक्ति मार्ग में उनकी महिमा अपार है; वे दीनों के दयालु संरक्षक हैं। उनकी दृष्टि में जात-पात का भेद नहीं, केवल भक्ति और प्रेम ही सर्वोपरि हैं। राजमहल हो या वनवास, वे हर परिस्थिति में शांत, स्थिर और अडिग रहते हैं।
श्रीराम की मर्यादा और आदर्श यह सिखाते हैं कि जीवन में अनुशासन क्यों आवश्यक है। जैसे नदी के तट उसकी मर्यादा तय करते हैं, वैसे ही सामाजिक जीवन की सीमाएँ उसे संतुलन देती हैं। जब ये सीमाएँ टूटती हैं, तब अव्यवस्था फैलती है। इसलिए श्रेष्ठ पदों पर आसीन लोगों का दायित्व होता है कि वे स्वयं मर्यादा में रहें और दूसरों के लिए भी आदर्श बनें। श्रीराम अपने प्रियों को खोते हैं, दुःख सहते हैं, फिर भी अपने धर्म से विमुख नहीं होते।
मर्यादा केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहती — वह समाज को जोड़ने का सूत्र होती है। जब यह नष्ट होती है, तो संगठन, संसद, या समाज — कुछ भी सुचारु रूप से कार्य नहीं कर पाता। आज, जब छल, स्वार्थ और अनैतिकता समाज में बढ़ती जा रही है, और राजनीति, न्याय, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे क्षेत्रों में भ्रष्टाचार के उदाहरण सामने आ रहे हैं — ऐसे समय में श्रीराम की मर्यादा और आदर्श अत्यंत प्रासंगिक हो उठते हैं।
ऐसे जटिल समय में हमें अपने भीतर के राम को जगाना है — वही राम जो सद्गुणों के प्रतीक हैं। श्रीराम का स्मरण और उनसे जुड़ाव हमें बुराइयों से दूर रखता है और सत्य, धैर्य, करुणा, मैत्री, क्षमा जैसे गुणों की ओर प्रेरित करता है। रामराज्य का मतलब है — मानवता की पूर्ण मुक्ति: शारीरिक, मानसिक और भौतिक कष्टों से। इसके लिए हमें अपनी सोच, भावना और कर्म को पवित्र बनाना होगा। यही राष्ट्र के उत्कर्ष का मार्ग है।
तुलसीदासजी ने कहा है — “ईश्वर अंश जीव अविनाशी”, अर्थात हर व्यक्ति में ईश्वर का अंश है। लेकिन हम इस सत्य को भूल जाते हैं और सीमित अहंकार में उलझ जाते हैं। हमें अपने भीतर के सर्वव्यापक राम को पहचानना और उन्हें अपने जीवन में उतारना होगा। इसके लिए मर्यादाओं को स्वीकारना और अपने जीवन के उद्देश्य को समझना आवश्यक है। यही मानव जीवन की सार्थकता है — यही श्रीराम की सीख है।