क्यों उद्धव ने अमित शाह को खाली हाथ लौटाया?

राजनीतिक बियाबान में भाजपा और शिवसेना की दोस्ती पुरानी है। करीब दो दशक से भी अधिक की। तेवर भले ही तल्ख होते रहे हों, लेकिन दोस्ती पर असर नहीं आर्इं। मतभेद कई बार देखा गया, लेकिन मनभेद कभी सरेआम नहीं दिखा। फिर अचानक क्या हुआ कि बुधवार यानी 6 जून, 2018 को शिवसेना के नेताओं ने भाजपा अध्यक्ष को मातोश्री से खाली हाथ लौटा दिया? वही, मातोश्री जहां शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे के कार्यकाल में आम हाथ भी खाली हाथ शायद ही लौटता था। यकीनन, यह भाजपा के लिए सोचने की बात है। गठबंधन के पैरोकारों और खासकर महाराष्ट्र में सियासत करने वालों को संजीदा होना होगा।
असल में, मुंबई के मातोश्री में 6 जून,2018 को बिताए करीब दो घंटे 20 मिनट का वक्त न अमित शाह जल्दी भूल पाएंगे और न ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस. यह एक ऐसी मुलाकात थी जिसके लिए वक्त अमित शाह ने मांगा था। इस दौरान उद्धव ठाकरे ने अपनी बातें कहीं, लेकिन उनकी बातें नहीं मानीं। सुनी-सुनाई से कुछ ज्यादा है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की मुलाकात इस बार नए अंदाज और तेवर वाले उद्धव ठाकरे से हुई। अमित शाह मन बनाकर गए थे कि वे साथ लोकसभा चुनाव लड़ने का निमंत्रण उद्धव ठाकरे को देंगे और ठाकरे ना-ना करते करते हां कर देंगे। लेकिन इस बार शिवसेना का रुख बिल्कुल बदला हुआ दिखा। जानकारों के मुताबिक धीरे-धीरे मातोश्री ने वही रवैया अपनाना शुरू किया है जो बाल ठाकरे के वक्त शिवसेना प्रमुख अपनाया करते थे। बताया जा रहा है कि उद्धव अब सिर्फ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष से बात करेंगे। महाराष्ट्र के स्थानीय नेताओं से उद्धव के बेटे आदित्य ही संपर्क में रहेंगे। अगर भाजपा को मातोश्री प्रमुख से बात करनी होगी तो सीधे पहल प्रधानमंत्री और अमित शाह के स्तर पर ही होगी।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे से होने वाली मुलाकात से पहले शिवसेना ने सामना के जरिये भाजपा पर करारा हमला किया है। सहयोगी दलों के साथ चार साल बाद बातचीत शुरू करने के भाजपा के कदम पर सवाल उठाते हुए शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने कहा कि मातोश्री में सभी का स्वागत है लेकिन शिवसेना ने अब ह्यएकला चलो रेह्ण की नीति अपना ली है। इसका सबूत हमने पालघर के चुनाव में दे दिया। अब शिवसेना अपनी नीति बदलने को तैयार नहीं है। शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना के जरिये भाजपा को अपने तीखे तेवर दिखा दिए हैं। सामना में लिखा गया है कि अमित शाह इन चुनावों में किसी भी तरह 350 सीटें जीतना चाहते हैं। सामना में लिखा गया है, “पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े हुए हैं, किसान सड़क पर हैं, इसके बावजूद भाजपा चुनाव जीतना चाहती है। जिस तरह भाजपा ने साम, दाम, दंड, भेद के जरिए पालघर का चुनाव जीता उसी तरह बीजेपी किसानों की हड़ताल को खत्म करना चाहती है। चुनाव जीतने की शाह की जिद को हम सलाम करते हैं।
सामना में प्रकाशित इस लेख में आगे लिखा है, मोदी पूरी दुनिया में घूम रहे हैं और शाह पूरे देश में घूम रहे हैं। भाजपा को उपचुनावों में हार मिली है, क्या इसलिए अब उसने सहयोगी पार्टियों से मिलना शुरू कर दिया है। भले ही अब वह कनेक्शन बनाने की कोशिश करे, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। चंद्रबाबू नायडू एनडीए छोड़ गए, नीतीश कुमार भी अलग बयान दे रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि अमित शाह बहुत खुश होकर मातोश्री पहुंचे थे। अगर संघ का दबाव नहीं होता तो संभवत: यह मुलाकात भी नहीं होती। लेकिन नागपुर का नेतृत्व इस बात पर अड़ा हुआ है कि भाजपा को अपनी छवि बदलनी होगी और सबसे पुराने मित्र से दोस्ती का हाथ बढ़ाना होगा। इसी आदेश के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस के साथ उद्धव से मिलने पहुंचे थे। करीब दो घंटे 20 मिनट तक वे मातोश्री में रुके। सुनी-सुनाई है कि इस दौरान देवेंद्र फड़णवीस सिर्फ 20 मिनट ही दोनों नेताओं के साथ रहे। इसके बाद अमित शाह और उद्धव ठाकरे ने अकेले बैठकर करीब दो घंटे लंबी बातचीत की। उधर, देवेंद्र फड़णवीस और आदित्य ठाकरे दूसरे कमरे में बैठे रहे।
सवाल उठता है कि इतनी लंबी बातचीत के बावजूद दोनों नेताओं के मन क्यों नहीं मिले। मुंबई और दिल्ली में दोनों ही दलों के नेताओं से बात करने पर इस सवाल का जवाब कुछ हद तक मिल जाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 24 सीटों पर लोकसभा का चुनाव लड़ी थी और शिवसेना 20 सीटों पर। भाजपा ने 24 में से 23 सीटें जीतीं और शिवसेना ने 20 में से 18। लेकिन 2014 में ही जब विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा और शिवसेना का संबंध विच्छेद हो गया। भाजपा अलग चुनाव लड़ी और शिवसेना ने अलग रास्ता चुना। उस वक्त देश में मोदी लहर थी तो भाजपा राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनी और शिवसेना दूसरे नंबर पर छिटक गई। मातोश्री के अंदर की खबर रखने वाले एक सूत्र का कहना है, ह्यकरीब चार साल पुराना जख्म उद्धव ठाकरे अभी तक नहीं भूले हैं। इस बार बात सिर्फ लोकसभा चुनाव की नहीं होगी, बात विधानसभा चुनाव की भी होगी। अगर भाजपा को शिवसेना के साथ गठबंधन करना है तो ये वादा करना होगा कि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री उम्मीदवार देवेंद्र फड़णवीस नहीं उद्धव ठाकरे होंगे। अगर भाजपा ने इस बार ठाकरे को मुख्यमंत्री बनने से रोका तो वे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में रोड़ा अटकाएंगेह्ण। बताया जाता है कि उद्धव ठाकरे ने भी मातोश्री में हुई मुलाकात के दौरान अमित शाह को यह बात अपने अंदाज में बता दी है।
अब गेंद पूरी तरह भाजपा के पाले में है। दिल्ली में अमित शाह के करीबी एक नेता इस मुलाकात के बारे में बताते हैं, कि भाजपा अभी सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर ध्यान देना चाहती है। मुलाकात भी इसी सिलसिले में थी। मुलाकात से पहले माहौल अच्छा रहे इसलिए अमित शाह ने एक इंटरव्यू में कह दिया था कि लोकसभा चुनाव शिवसेना के साथ लड़ेंगे। सुनी-सुनाई पर जाएं तो भाजपा चाहती है कि लोकसभा चुनाव में वही 24-20 का फॉमूर्ला कायम रहे। लेकिन अब शिवसेना उस पुराने फॉमूर्ले पर नहीं लड़ना चाहती। अमित शाह के करीब यह नेता बताते हैं, ह्यभाजपा के नेतृत्व ने शिवसेना के नेतृत्व को समझाने की कोशिश की कि अगर दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ेंगी तो दोनों को ही नुकसान होगा। इस नफा-नुकसान को समझाने के लिए अमित शाह मातोश्री जाकर उद्धव से मिले थे। लेकिन बात विधानसभा चुनाव पर जाकर टिक गई। शिवसेना ने इस बार साफ लहजे में बता दिया है कि अगर लोकसभा चुनाव साथ लड़ेंगे तो विधानसभा चुनाव भी साथ लड़ना होगा। भाजपा को पहले ही घोषणा करनी होगी कि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री उम्मीदवार शिवसेना का होगा।
अब भाजपा इस नए फॉमूर्ले पर सोच रही है। आगे क्या होगा, इस सवाल के जवाब में भाजपा के महाराष्ट्र के एक बड़े नेता बताते हैं, ह्यशिवसेना अलग रास्ता चुनेगी इसकी उम्मीद अब भी कम है। लेकिन एक बात तय है कि मातोश्री से वही पुराना रिश्ता बनाना होगा जो बाल ठाकरे के वक्त में दिल्ली में अटल-आडवाणी और मुंबई में प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे का था। इस वक्त उद्धव ठाकरे न मोदी के करीब हैं ना अमित शाह के। मुंबई में भी ठाकरे परिवार को सबसे ज्यादा शिकायत देवेंद्र फड़णवीस और महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष राव साहेब दानवे से है।ह्ण ऐसे में संघ कार्यालय की भूमिका सबसे अहम मानी जा रही है है। नागपुर में संघ के एक प्रचारक आगे की सियासत की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ह्यअब मातोश्री और दिल्ली की सत्ता की बीच की चाबी नागपुर से ही निकलेगी और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की भूमिका इसमें अहम हो सकती है। आगे-आगे देखिए, दिल्ली की सियासत में मुंबई कितना अहम रोल निभाती है।

 

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