केवल 24 हफ्तों में हुआ जन्म, एनआईसीयू में सफलतापूर्वक बचाई गई जान

गुरुग्राम। केवल 24 हफ्तों में जन्मे शिशु की जान बचाना लगभग न के बराबर संभव था। लेकिन गुरुग्राम स्थित सीके बिरला अस्पताल के एनआईसीयू में न सिर्फ शिशु की जान बचाई गई बल्कि 86 दिन की निगरानी के बाद उसे बिल्कुल स्वस्थ अवस्था में डिस्चार्ज किया गया। मां के गर्भ में एमनियोटिक फ्लूइड की कमी के कारण डिलीवरी जल्दी करनी पड़ी। ऐसा न करने पर जच्चा और बच्चा दोनों की जान जा सकती थी।

जन्म के दौरान शिशु का वजन केवल 690 ग्राम था, जिसके कारण उसके सर्वाइवल में काफी मुश्किलें आईं। चूंकि, फेफड़े पूरी तरह से विकसित न होने के कारण उसे सांस लेने में समस्या आ रही थी इसलिए उसे वेंटिलेटर पर रखा गया, जिससे उसे एपनिया नाम की स्थिति से बचाया जा सके। इस स्थिति में शिशु सांस लेना भूल जाता है, जिससे उसकी जान का खतरा रहता है।

जिन बच्चों का जन्म निर्धारित समय से 25 हफ्ते पहले हो जाता है, उन्हें नियोनेटल इंटेन्सिव केयर यूनिट में रखा जाता है, जहां उनकी खास देखभाल की जाती है। भारत में ऐसे बच्चों का जीवनदर केवल 5% है।

24 हफ्तों में जन्मे शिशुओं को बचाना बेहद मुश्किल होता है। वहीं इस मामले में एनीमिया के कारण शिशु को मल्टिपल ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता थी। चूंकि, आंते भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाई थीं इसलिए उसे जिंदा रखने के लिए 56 दिनों तक नसों द्वारा फीड कराया गया।

एनआईसीयू में 86 दिन पूरे होने के साथ शिशु ने 37 हफ्ते पूरे कर लिए, जो एक स्वस्थ जन्म के लिए जरूरी होते हैं। 86 दिनों बाद बच्चे को 1740 ग्राम स्वस्थ वजन के साथ डिस्चार्ज किया गया। गुरुग्राम में यह अपने प्रकार का पहला ऐसा मामला था।

गुरुग्राम स्थित सीके बिरला अस्पताल के नियोनेटोलॉजिस्ट, डॉक्टर सौरभ खन्ना ने बताया कि, “यह केस हाई रिस्क प्रेगनेंसी और प्रीमेच्योर बेबी वाले कई दंपत्तियों के लिए आशा की नई किरण की तरह है क्योंकि ऐसे कई मामले हैं जहां 26 हफ्तों में जन्मे शिशु को जिंदा रहने का मौका तक नहीं दिया जाता है। एक टेरटियरी केयर अस्पताल जहां समय से पहले जन्मे शिशुओं की देखभाल संबंधी सभी चीजें उपलब्ध हों, ऐसे मामलों में शिशु के जीने की संभावना को बढ़ाता है।”

डब्ल्यूएचओ के अनुसार, विश्वस्तर पर प्रीमेच्योर बेबी के शीर्ष 10 देशों की लिस्ट में 60% के साथ भारत पहला स्थान रखता है। भारत में लगभग 3.5 मिलियन यानी कि 24% बच्चों का जन्म समय से पहले हो जाता है। डब्ल्यूएचओ ने बताया कि, 37 हफ्तों के गेस्टेशन से पहले जन्मे शिशु को प्रीमेच्योर बेबी कहा जाता है। वहीं भारत में, केवल 28 हफ्तों में जन्मे शिशुओं को जिंदा बच्चों की श्रेणी में गिना जाता है, जबकी 24-27 हफ्तों के शिशुओं को इसमें गिना ही नहीं जाता है।

शिशु की मां में एमनियोटिक फ्लूइड यानी कि गर्भोदक की कमी के कारण बच्चे की डिलीवरी जल्दी करनी पड़ी। लगातार 3 दिनों तक मां का इलाज चलता रहा। प्रोटोकॉल के अनुसार एनटीनेटल स्टेरॉयड के साथ फेटल न्यूरो प्रॉटक्टिव ड्रग्स की शुरुआत की गई। नियोनेटोलॉजिस्ट द्वारा दंपत्ति को काउंसलिंग दी गई, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि वे प्रीमेच्योर बेबी से संबंधित इलाज और मुश्किलों के लिए तैयार हैं या नहीं।

सीके बिरला अस्पताल की नियोनेटोलॉजिस्ट, डॉक्टर श्रेया दूबे ने बताया कि, “हमारे देश में, हेल्थकेयर सिस्टम पर इतना दबाव बना हुआ है कि इस प्रकार के मामलों को नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। जबकी आधी लड़ाई एंटीनेटल देखभाल के साथ पहले ही जीती जा चुकी है। वर्तमान में, प्रीमेच्योर जन्म के बारे में जागरुकता बढ़ाना आवश्यक है। समय से बहुत ज्यादा पहले जन्मे शिशुओं को बचाना संभव है लेकिन इसके लिए हमें रिसोर्सेस और मैनपावर पर और अधिक इनवेस्ट करने की आवश्यकता है।”

 

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