सशक्त कूटनीति और वीरता की प्रतिमूर्ति थी रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि 18 जून पर विशेष


नई दिल्ली/ टीम डिजिटल। आज महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान दिवस है जिसे हम पुण्‍यतिथि के रूप में उन्‍हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। पिछली डेढ़ शताब्दी से वे भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की नायिका और अद्भुत वीरता की मिसाल के तौर पर लोक मानस में अंकित हैं. उनकी बहादुरी के किस्से और ज्यादा मशहूर इसलिए हो जाते हैं, क्योंकि उनकी सबसे ज्यादा तारीफ तो उनसे लड़ने वाले अंग्रेजों ने खुद की थी.

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मोरोपंत तांबे’ और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाने थे।

उनकी वीरांगना छवि को जनमानस में छापने का सबसे बड़ा काम कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी” ने किया.
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान

आज भी अगर आप झांसी के किले में जाएं और वह स्थान देखें, जहां से रानी ने घोड़े सहित किले से छलांग लगा गई थीं, तो वह दृश्य सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. किले के निचले हिस्से में रखी गुलाम गौस खां की कड़क बिजली तोप बताती है कि कहने को वह लड़ाई एक रियासत को बचाने की थी, लेकिन असल में वह ऐसा इतिहास रच रही थी, जिससे आने वाले समय में राष्ट्रवाद, हिंदू-मुस्लिम एकता और महिला सशक्तीकरण जैसे बड़े मुद्दों पर चर्चा होने वाली थी. लेकिन इस संवाद में रानी का वह रूप अक्सर लोक स्मृति में नहीं आ पाता कि वे कूटनीति की भी महारथी थीं. इसका सबसे पहला पहलू तो यह है कि जिन रानी को 1857 की क्रांति की नायिका माना जाता है, वे 1857 में युद्ध में ही नहीं उतरीं. रानी ने तलवार उठाई फरवरी 1858 में.. तो रानी 10 मई 1857 को क्रांति की शुरुआत से लेकर फरवरी 1858 के बीच आखिर क्या कर रहीं थीं. क्या वे हाथ पर हाथ धरे देश में हो रही इस क्रांति को देख रहीं थीं. लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व को देखते हुए ऐसा मानना कठिन है. असल में इन छह-सात महीने में रानी बराबर इस बात की कोशिश कर रहीं थीं कि उनके राज्य को उसका जायज हक मिल जाए. उनके पति गंगाधर राव के निधन के बाद उनके दत्तक पुत्र को अंग्रेज झांसी का महाराज स्वीकार कर लें. इसके लिए रानी ने कूटनीति या राजनय के हरसंभव विकल्प पर काम किया. रानी के इन प्रयासों को झांसी के गजेटियर में विस्तार से दर्ज किया गया है.

रानी चाहती थीं कि अंग्रेजों से युद्ध न करना पड़े, ताकि झांसी की बेगुनाह जनता को इस लड़ाई की कीमत न चुकानी पड़े. यह कीमत कितनी भारी थी कि इसकी कल्पना हम आज शायद नहीं कर सकते, लेकिन रानी के वीरगति को प्राप्त होने के बाद झांसी को जिस तरह अंग्रेजों ने लूटा, वह अपने आप में अध्ययन का विषय है. इस लूट का वर्णन गदर के समय महाराष्ट्र से तीर्थयात्रा पर निकले वासुदेव गोडसे शास्त्री नाम के ब्राहृमण ने मराठी में लिखी किताब “माझा प्रवास” में किया. बाद में इसका हिंदी अनुवाद अमृत लाल नागर ने “आंखों देखा गदर” नाम से किया. शास्त्री जब किले के भीतर गिर रहे तोप के गोलों और उनसे उठने वाले शोलों का वर्णन करते हैं तो जेहन में वैसी ही तस्वीर उभरती है जैसी तस्वीरें इस्राइल के फलस्तीन पर होने वाले हमलों की हम टीवी पर देखते हैं. इस पुस्तक में शास्त्री ने लूट की आंखों देखी लिखी है. युद्ध के बाद झांसी को पांच चरण में लूटा गया. लूट का सबसे पहला हक गोरे सैनिकों को मिला और उन्होंने सोना-चांदी और दूसरे कीमती सामान लूटे. उसके बाद भारतीय मूल के सैनकों ने लूटा. इस तरह पांच दिन तक लूट हुई और आखिर में झांसी की एक-एक चीज लूट ली गई.
रानी इसी त्रासदी से बचना चाहती थीं. उन्होंने आखिर तक कूटनीति का सहारा लिया, लेकिन अंत में हुआ यह कि अंग्रेजी सेना से बागी हुए भारतीय सैनिकों और आसपास के सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी. इस लड़ाई में उन्होंने रानी को अपना नेता घोषित किया और महारानी के जयकारों के साथ युद्ध का यलगार कर दिया. तकरीबन यही स्थिति दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर और लखनऊ में बेगम जीनत महल के साथ हुई थी. इससे अंग्रेजों को यह संकेत गया कि रानी कूटनीतिक बातचीत सिर्फ दिखावे के लिए कर रही हैं और असल में युद्ध ही इसका मकसद है. जब बागी सैनिक झांसी के किले पर लक्ष्मीबाई के जयकारे लगाने लगे तो रानी ने उनका नेतृत्व करना स्वीकार किया और उसके बाद का इतिहास तो सबको मालूम ही है.
रानी को असहनीय वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 17 जून, 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर ह्यूरोज को भी यह कहना पड़ा कि- “भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है।” विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।

 

 

 

 

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.