रंगमंच हमेशा ज़िंदा रहेगा

मुंबई। नाट्यशास्त्र रंगमंच पर दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक है। यह कम से कम ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के समय का है और इसका प्रथम अध्याय नाट्य के जन्म की कथा कहता है। यह एक ऐसा समय था, जब दुनिया नैतिक रूप से पतन के ग़र्त में चली गयी थी। लोग विवेकशून्य और वासनाओं के गुलाम बन गये थे। किसी ऐसे साधन की आवश्यकता थी (आंखों और कानों को सुख देने वाले और साथ ही शिक्षाप्रद भी) जो मानवता का उद्धार कर सके। तब सृजनकर्ता ब्रह्मा ने चारों वेदों का सार लेकर एक पंचम वेद की रचना की- नाट्य के वेद की। अब चूंकि देवगण नाट्य विद्या में पारंगत नहीं थे, इसलिये नया वेद भरत को सौंप दिया गया, जो कि एक मानव थे। तत्पश्चात् भरत ने अपने सौ पुत्रों और ब्रह्मा द्वारा भेजी गयीं कुछ दिव्य नृत्यांगनाओं के सहयोग से प्रथम नाटक का मंचन किया। देवताओं ने इस नवीन कला की अभिव्यंजकता और सम्प्रेषणीयता के विकास में सोत्साह योगदान दिया। भरत ने जिस नाटक की प्रस्तुति की थी, वह देवों और दानवों के ऐतिहासिक संघर्ष पर आधारित था, और उसमें अन्ततः देवताओं की विजय दिखायी गयी थी। इस प्रस्तुति ने देवताओं और मनुष्यों को तो आनन्दित किया, किन्तु दर्शकों के रूप में उपस्थित दानवों ने स्वयं को बहुत अपमानित महसूस किया। अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रयोग कर उन्होंने अभिनेताओं की वक्तृता, गतिशीलता और स्मृति को पंगु बना दिया। देवताओं ने भी इसका प्रतिशोध लेने के लिये दानवों पर आक्रमण कर दिया और उनमें से बहुतों को मार डाला। अशान्ति बढ़ती जा रही थी। सृजनकर्ता ब्रह्मा ने दानवों से सम्पर्क स्थापित किया और बातचीत की।
उन्होंने नाटक की व्याख्या करते हुए कहा कि इसमें तीनों ही लोकों की स्थिति का प्रतिनिधित्व हुआ है। जीवन के नैतिक लक्ष्यों- आध्यात्मिक, सांसारिक और इन्द्रियगत- तथा उनके उल्लासों और पीड़ाओं को इसमें सम्मिलित किया गया है। ऐसी कोई भी बुद्धिमत्ता, कला अथवा भावना नहीं है, जो इसमें समाहित न हो। इसके पश्चात् ब्रह्मा ने भरत से कहा कि वे प्रस्तुति को आगे बढ़ायें। प्रस्तुति का दूसरा प्रदर्शन सफल रहा या नहीं, इस बारे में हमें कुछ भी नहीं बताया जाता। इस अध्याय पर टिप्पणी करते हुए विद्वानों ने कहा है कि यह मिथक दानवों की निन्दा करता है। उनका बर्ताव देख कर यह साबित होता है कि वे रंगमंच की वास्तविक प्रकृति को समझ पाने में असमर्थ रहे। रंगमंच पर ब्रह्मा का उपदेश ही आगे चल कर इस मिथक का सार बन गया… जो कि मेरे विचार से इस मिथक की एक नितान्त गलत व्याख्या है। प्रारम्भिक तथ्य यह है कि दानवों ने (देवताओं के विपरीत) शारीरिक हिंसा का सहारा नहीं लिया, बल्कि अभिनेताओं की वाणी, गतिशीलता और स्मृति‘ को अपना निशाना बनाया। इससे साफ़ पता चलता है कि किसी प्रस्तुति के अतिसूक्ष्म पहलुओं के बारे में भी उनकी समझ कितनी परिपक्व थी। और अधिक महत्व की बात यह है कि यह एक श्रद्धेय पाठ है, जो हमें नाट्य-प्रदर्शन की कला और तकनीकों की शिक्षा देने और मानवता के इतिहास के सर्वप्रथम प्रदर्शन के बारे में जानकारी देने के लिये रचा गया है। स्रष्टा ने अन्य देवताओं के साथ, जो दिव्य और प्रशिक्षित अभिनेता थे, स्वयं इस परियोजना में हिस्सा लिया था। इसके परिणामस्वरूप प्रस्तुति को ज़बर्दस्त सफलता मिलनी चाहिये थी। पर इसके बावज़ूद हमें बताया गया कि यह एक आपदा थी। इसमें एक अव्यक्त वक्तव्य निहित था, जिसका विद्वानों ने संज्ञान ही नहीं लिया। सम्भव है वे इससे परेशान रहे हों। निश्चित रूप से इसके निहितार्थों की आगे चल कर भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में झलक मिलती है, जो दर्शाता है कि रंगमंच का मूल उद्देश्य दर्शकों को बाह्यजगत से विच्छिन्न कर उन्हें एक साझे आनन्द की ओर प्रवृत्त करना है। मेरे विचार से यह मिथक रंगमंच की एक अपरिहार्य विशेषता की ओर इंगित करता है, जहां ब्रह्मा की सान्त्वनाएं सम्भवतः स्वीकृत नहीं हो सकती थीं, कि प्रत्येक प्रदर्शन में, चाहे उसमें कितनी ही सावधानी बरती गयी हो- असफलता अथवा व्यवधान और अन्ततः हिंसा की सम्भाव्यता बनी ही रहती है। किसी भी जीवन्त प्रदर्शन की न्यूनतम आवश्यकता है कि उसमें एक मनुष्य अभिनय (अर्थात् किसी अन्य की उपस्थिति का नाट्य) कर रहा हो और कोई दूसरा उसे देख रहा हो- और यह स्थिति अपने आप में ही अनिश्चितता से भरपूर है। दुनिया में कभी भी उतने नाटक नहीं हुए, जितने आज हो रहे हैं। रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन और विडियो ने आज हम पर नाटक की बौछार कर दी है। भले ही ये माध्यम दर्शकों को व्यस्त रखें या कुपित कर दें, पर इनमें से किसी में भी दर्शकों की प्रतिक्रिया से कलात्मक वृत्तान्त में बदलाव सम्भव नहीं है। सर्वप्रथम प्रस्तुति का मिथक यह इंगित करता है कि रंगमंच में नाटककार, अभिनेता और दर्शक मिल कर एक ऐसे सातत्य या क्रमबद्धता का निर्माण करते हैं, जिसमें से एक न एक हमेशा ही अस्थिर रहेगा और वह इसलिये सम्भावित रूप से विस्फोटक होगा। यही कारण है कि रंगमंच जब कभी अत्यधिक सुरक्षित या संरक्षित होने का प्रयास करेगा, वह अपनी ही मौत के अधिपत्र (वारन्ट) पर हस्ताक्षर कर रहा होगा। अन्य शब्दों में, यह भी एक कारण है कि भले ही रंगमंच का भविष्य अक्सर निराशाजनक लगता हो, पर यह हमेशा ज़िन्दा भी रहेगा और उत्तेजना भी देता रहेगा।

विश्व रंगमंच दिवस पर गिरीश कारनाड का सन्देश
– मुम्बई थियेटर गाइड डाॅट काॅम से साभार। अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र। पिछले साल की पोस्ट।

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